कलयुग हो या अन्य युग , सदा रहा पाखण्ड !
- ज्ञान को अपनी ढाल बनाकर , अज्ञानी , लिबास बदलते !
स्वांग बनाकर तरह तरह के, कुछ अलग दिख जाते !
पाखण्ड की आड़ में , अपना व्यापार जमाते !
असल ज्ञानी तो साधना में , लीन ही रह जाते !
- सेठ साहूकार कर्ज देकर , मोटा ब्याज कमाते !
दान के पंखों पर भी , वो अपना नाम लिखवाते !
प्याऊ और बसेरों से वो , इन्कम टैक्स बचाते !
परोपकार का पाखण्ड कर , उससे भी धन कमाते !
- शिष्य और शोहरत पाने को , झूठा प्रचार करवाते !
पहुँच और पैसों के दम पर , जगत में छा जाते !
ज्ञानियों के साहित्य ग्रंथ पर , पाखण्डी मोहर लगाते !
ज्ञानी को कोई याद ना रखता , पाखण्डी पूजे जाते !
- माँ बाप के जाने पर , जब मोटी वसीयत पाते !
मीड़िया की देखा देखी , सफेद लिबास बनवाते !
बरसी पर फोटो छपवाकर , इतिश्री कर जाते !
नाम से उनके ट्रस्ट बना , पाखण्डी नोट कमाते !
शुभ प्रभात
ReplyDeleteअच्छी व सटीक पंक्तियाँ
सादर
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thanks
ReplyDeleteअद्भुत ,
ReplyDeleteअनूठा ,
अनुपम काव्य .... !
संजय जी आपको कविता पसंद आई अर्थात लिखने वाले की कलम सार्थक हो गई, आभार !
Deleteसरल सुंदर शब्दों के उपयोग से बेहद प्रभावी पंक्तियों का सृजन । बहुत खूब , .....शुभकामनाएं
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