यह आलेख मेरी
धर्म पत्नि के सहयोग से बन पाया है जिसमें एक महिला के मन में उठते सवालों को कलमबद्
करने का प्रयास किया गया है दरअसल एक लेखक पुरूष और स्त्री के बन्धन से ऊपर होता है
उसकी कलम दिल और मन के संयुक्त होने से ही शब्दों को उकेर पाती है अर्थात वो तो बस
एक लेखक होता है
मैं कौन,बेटी,बहन,बहु,माँ या फिर दादी,नानी । अरे
अरे आप अपने दिमाग पर ज्यादा बोझ मत डालिए शायद पहचान नही पायेंगे। और पहचानोगे भी
तो कैसे मैं स्वयं अपने आप को नही पहचानती तो फिर आप कैसे पहचान सकते हैं।
और हाँ शायद एक कारण ये भी है कि मैं
दूसरों के लिए कार्य करने ओर सोचने में इतना व्यस्त हो गई कि अपनी पहचान उजागर करना
ही भूल गई। और आज जब पहली बार दिल की जगह दिमाग से कार्य करना चाहा तो सबसे पहले उसी
ने यह प्रश्न मुझसे पूछ लिया कि मैं कौन हूँ और क्या चाहती हूँ ।
एक बार तो मैं सोच में पड़ गई लेकिन तुरन्त
संभलते हुए जवाब दिया कि ससुराल ही अब मेरा घर है अतः मैं इस घर की बेटी हूँ तो दिमाग
खिलखिला कर हँस पड़ा और बोला कैसी बेटी किसकी बेटी ? ओर जब तुम
इस घर की बेटी हो तो ये पुरूष कौन है जो तुम्हारे जीवन का मालिक दिख रहा है जिसे तुम
अपना पति कहती हो ? और सच पूछों तो इस प्रश्न पर मैं फिर से जीवन के
अनेक अनसुलझे पहलुओं कि तरह निरूत्तर हो गई। अनमनी सी अपनी विफलता पर झुंझला कर चिर
परिचित अंदाज में टीवी का रिमोट हाथ में ले उसके चैनल बदलने लगी। लेकिन ये क्या आज
तो मानो यह भी मेरे दिमाग से मिल कर मेरा दुश्मन हो गया है। सभी चैनल पर अन्तर्राष्ट्रीय
महिला दिवस के उपलक्ष में महिलाओ को अधिकार और शक्ति देने का ही ढोल पीटा जा रहा था।
आखिर दिमाग की बात मानकर मैं भी इस विषय पर अपने मन के भावों को उकेरने में व्यस्त
हो गई।
जहां तक मैं समझ पाई हूँ महिलाओं से जुड़े
समस्त आर्थिक, सामाजिक, कानूनी, राजनैतिक अधिकारों
के प्रति जागरूकता पैदा करके महिलाओं में आत्म विश्वास बढ़ाने से सम्बंधित कार्य ही
महिलाओं का वास्तविक सशक्तिकरण है। लेकिन आज तो महिला दिवस या उनके सशक्तिकरण का विषय
अधिकांश नेताओं,
सरकारी या गैर सरकारी संगठनों की पसन्द का विष्य बन गया है जिसका
इस्तेमाल वे अपना राजनैतिक कद बढ़ाने में कर रहे हैं। महिलाओं के अधिकारों का ढिंढोरा
पीट कर एवं इस विषय पर विभिन्न आंदोलन, सम्मेलन एवं
विचार गोष्ठियां आयोजित करके वे समाज के एक बडे़ वर्ग को भावनात्मक रूप से अपने साथ
जोड़ने में कामयाब हो जाते हैं।
हालांकि कुछ निस्वार्थ संगठनों के प्रयासों
से महिलाओं में काफी जागरूकता आई है एवं उनका आत्म विश्वास भी बढ़ा है लेकिन तुल्नात्मक
दृष्टि से देखा जाए तो यह नगण्य ही है। फिर भी मन में अनेक प्रश्न बार बार आते रहते
हैं कि
क्या वास्तव में महिला अशक्त ही जन्म लेती है ?
क्या महिला
बनने से पहले बालिका रूप में वह सशक्त होती है ?
यदि यह मानव निर्मित समस्या है तो इसकी शुरूआत
कहाँ से
होती है ?
क्या कभी इस समस्या का समाधान हो पायेगा ?
क्या कभी महिला वास्तविक अधिकार पा सकेगी ?
प्रश्नों का हल तलाशने से पहले हमें
कुछ बातो को दोहराना होगा। दर असल जन्म के समय से ही बंधन को झेलती बालिका जब बड़ी होकर
अपना घर बसा लेती है तो प्रत्यक्ष रूप से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उसका दायरा
बढ़ गया है लेकिन सुक्ष्मता से देखा जाए या स्वयं उस महिला से पुछा जाए तो ज्ञात होता
है कि उसका दायरा तो और सिमट गया है।
पिता के घर में रहते हुए पिता के स्नेह
की छांव और माँ के दुलार के बीच आकाश में स्वछंद उड़ने की तमन्ना सदा उसके दिल में बनी
रहती थी। ओर नही तो कम से कम एक माँ रूपी ढाल सदा उसकी अभिव्यक्ति की रक्षा करने के
लिए तैयार रहती थी ओर इसी छॉव और स्नेह के बीच वह अपने नन्हे पंखों को फैलाकर अपनी
शिक्षा और अन्य गतिविधियों को पूर्ण करते करते अपने होने वाले स्वर्णिम भविष्य और सुखद
जीवन की कल्पना को साकार करने का महत्वपूर्ण कार्य कर पाती है।
लेकिन शादी के बाद ससुराल में उससे सभी
की कामना अपने अपने कार्यो की पूर्णता तक ही सिमट कर रह जाती है सास ससुर चाहते हैं
कि वह घर का काम संभालने के साथ साथ सभी की पूर्ण देखभाल भी करे। जीवन साथी चाहता है कि सम्पूर्णता बस उसी पर न्योंछावर
कर दें और आज के परिपेक्ष्य में तो नौकरी एवं आर्थिक रूप भी इसमें जुड़ गये हैं।
इन सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करते करते वह
स्वयं अपने सपने और खुशियों को भूल ही जाती है और इन बंधनो में जकड़ कर रह जाती है प्रत्यक्ष
रूप से देखने पर उसका दायरा बड़ा जरूर दिखता है परन्तु सुक्ष्मता से अघ्ययन करें तो
वह एक छोटे दायरे में ही सिमट जाती है। चाहकर भी उससे बाहर नहीं निकल पाती।
महिलाओं को क्या करना चाहिए क्या नही करना
चाहिए यह निर्णय भी स्वयं महिलाओं ने ही दूसरों को दे रखा है। क्या महिलाएं इतनी सक्षम
नही हैं कि अपने कार्यो का निर्णय स्वयं कर सकें ?
अधिकांश महिलाओं ने अपनी सोच ही सदैव अनुसरण
करने की बना ली है तो फिर शिकायत भी क्यूँ करें और किससे करें उस समाज से जिसने नारी
का एक सीमित दायरा तय कर दिया है चाहे उसको सामाजिक, धार्मिक या
संस्कारों का नाम दे दिया जाता है लेकिन वास्तव में, है तो वह एक अघोषित बन्धन ही ना । और फिर वर्ततान
परिस्थिति के अनुसार कोई नया प्रतिबंध लगाना होता है तो हमारे अपने ही उसे कुल परम्परां
का नाम देकर लगाने में बिल्कुल नही हिचकिचाते हैं।
एक प्रश्न जो सदैव निरूत्तर रह जाता है
और हो सकता है आपके अर्न्तमन में भी यह प्रश्न कभी ना कभी आया हो कि क्या महिलाओं की सुरक्षा एवं अन्य क्रिया कलापों
का जिम्मा दूसरों को दिया जाना चाहिए ? क्या एक निश्चित
सीमा से ज्यादा किसी का दखल नारी को वास्तविक स्वतंत्रता प्रदान कर पायेगा ?
हमें यह बात भली भाँति समझ लेनी चाहिए कि
कोई भी वर्ग हो पहले वो अपना हित देखेगा फिर ही दूसरों की भलाई के बारे में सोचेगा।
क्या अभी भी महिलाएं यही समझती हैं कि इस तरह से सही मायने में महिला सशक्त हो पाएगी
?
शायद नही, तो क्या करना चाहिए ? आखिर एक नारी
चाहती क्या हैं ? नारी मात्र
यही तो चाहती हैं कि
ऽ कोई उसके प्रति संकीर्ण मानसिकता नही रखें।
ऽ उसे अपने निजी निर्णय लेने की स्वतंत्रता हो।
ऽ वो मात्र बहु,बहन,बेटी,माँ इन रिष्तों
से ही नही पहचानी जाए उसकी स्वतंत्र पहचान हो सकें।
ऽ नारी कोई खिलौना नही जिसमें चाबी भरकर चलाया जा
सकें वह अपनी इच्छा से चल सकें।
लेकिन ये सब होगा कैसे इसके लिए सरकार और
जो संस्थाएं यह कार्य कर रही हैं वे तो अपना कार्य करती ही रहेगी लेकिन जब तक महिलाएं
स्वयं की सहायता स्वयं नही करेगी कोई भी कानून या संस्था उनमें आत्मविश्वास नही भर
पायेगी। इस सम्बंध में आपके जहन में भी अनेकों सुझाव आ रहे होंगे शायद उसमे से कुछ
सुझाव निम्न भी हों।
सर्व प्रथम समस्त महिलाओं को यह सोच बदलनी होगी
कि हम आश्रित हैं। और यह तब ही संभव हो पायेगा जब महिलाएं आर्थिक रूप से सक्षम होंगी।
ऽ आर्थिक सक्षमता तब ही संभव है जब प्रत्येक महिला
शिक्षित होगी । इसके लिए बालिका शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित करके विभिन्न माध्यमों से
जागरूकता फैलाकर प्रत्येक बालिका को शिक्षित करना होगा।
ऽ प्रत्येक महिला के दिलो दिमाग से डर का भूत निकाल
कर जो महिला शिक्षित ना सकें उसे अन्य रोजगार पुरक कार्यो के लिए प्रेरित करना होगा।
ऽ प्रत्येक महिला आर्थिक स्वतंत्रता के लिए दूसरी
महिला की हर संभव सहायता करें ।
ऽ महिलाओं को राजनैतिक रूप से बिना जाति पांति भेदभाव
के महिलाओं का समर्थन करके अपना वर्चस्व बढ़ाना होगा जिससे ऐसे कठोर कानून बनाने के
लिए सरकारों को बाध्य कर सकें जिससे रोजगार में बराबरी का आरक्षण निश्चित किया जा सकें।
ऽ जिस दिन प्रत्येक महिला रोजगार प्राप्त कर लेगी
सही मायने में 75 प्रतिशत महिला
सशक्त हो जायेगी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे शहरों में रहने वाली कामकाजी महिलाएं
हैं।
ऽ एक महत्वपूर्ण और कठिन कार्य हमें मिलकर करना होगा, वह है जीवन
के विभिन्न पहलूओं पर सही निर्णय लेने की निर्भरता को कम करना ।
ऐसा नही है
कि हमारे परिवार के पुरूष इसमें हमारी सहायता नही कर रहे हैं या सभी निर्णय गलत लिये
जो रहे हों लेकिन किसी का विटो पॉवर बन कर उभरना अच्छा नही है। कॉमन विषय पर साझा निर्णय
लेना सदैव हितकर रहता है।
ऽ निर्णय लेने की क्षमता में एक महिला दूसरी महिला
से सुझाव लेकर भी यह कार्य ज्यादा अच्छे ढंग से कर सकती है। इससे महिलाओं में आत्म
विश्वास बढ़ेगा।
यह सत्य है कि महिलाओं का हृदय कोमल होता
है और किसी भी वर्ग को कष्ट देना या किसी का अहित उनसे सहन नही होता है लेकिन कोमलता
का मतलब यह भी नही कि कोई भी उन्हें कुचल दे। यह भी सत्य है कि हम पुरूष प्रधान समाज
में रह रहे हैं जहाँ अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी नारी को प्रथम दर्जा प्राप्त है
आज सम्पूर्ण सक्षमता होने के बावजूद उसे किसी भी विषय पर निर्णय लेने से पहले पुरूषों
की मौन स्वीकृति लेनी पड़ती है। यहां ऐसा कहने का तात्पर्य ये बिलकुल नही है कि पुरूष
समाज को नजर अंदाज कर दिया जाए। क्योंकि हम यह भी जानते हैं कि एक सुखद परिवार के लिए
जितना एक महिला जिम्मेदार है उतना ही एक पुरूष भी जिम्मेदार है लेकिन जब तक प्रत्येक
नारी के भीतर छिपी असुरक्षा की भावना को पूर्ण रूप से खत्म नही किया जा सकेगा तब तक
नारी अपनी सही ताकत तथा चुनौतियों से लड़ने की क्षमता को विकसित नही कर पायेगी।
अन्त में कह सकते हैं कि दर असल यह समस्या
शारीरिक ना होकर मानसिक ज्यादा है। अर्थात प्रकृति के अनुसार तो एक महिला एक पुरूष
से ज्यादा सक्षम है तभी तो उसे पुरूष से ज्यादा सहनशीलता का अधिकार, जन्म देने का अधिकार और भी अनेक विशिष्ठताएं प्रदान कि गई है।
लेकिन संकीर्ण मानसिकता के कारण ही उसे कमजोर आंका जाता है अतः आज प्रत्येक महिला कम
से कम ये प्रण जरूर लें कि एक महिला होकर दुसरी महिला के अधिकारों का हनन नही करूंगी
और ना ही अपने सामने किसी नारी के अधिकारों को कुचलने दूंगी तब ही सम्पूर्ण समाज की
मानसिकता को बदला जा सकेगा।
यदि अन्जाने में इस आलेख की किसी पंक्ति से
आपकी भावनाओं को ठेस लगी हो तो आपसे पुनः क्षमा चाहूंगा। यह सब लिखने के पीछे मेरा
उद्धेश्य आपका ध्यान इस ओर आकर्षित करने का प्रयास मात्र है क्योंकि प्रयास प्रारम्भ
करना ही किसी मंजिल को पाने का सर्वोत्तम तरीका है।
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